उप राष्ट्रपति श्री एम.हामिद अंसारी ने कहा कि हमारे अपने इतिहास के विभिन्न कालों में शासन की अवधारणाओं और गहरे अन्याय ने ऐतिहासिक रूप से कुछ पुरातन बातों को आवश्यक बना दिया है क्योंकि यह एक सच्चाई है कि बौद्धिक इतिहास सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास के चौराहे पर स्थित होता है और इसे तब पूरी तरह नहीं समझा जा सकता है जब इसे आर्थिक और राजनीतिक रूप से अलग कर दिया गया हो। भारतीय चिंतन के पारेख संस्थान पर सीएसडीएस की परियोजना का कल उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि स्वयं के विचारों के बारे में पर्याप्त मौलिक स्वरूप उपलब्ध हैं जो शासन की पद्धति और अंतर्निहित सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हैं। मनुस्मृति और अर्थशास्त्र के अलावा अशोक के शिलालेख और यात्रियों के वर्णन सामाजिक संरचना और मूल्यों की स्पष्ट जानकारी देते हैं जो पहले जनतांत्रिक थी लेकिन धीरे-धीरे राजसी हो गई।
प्राचीन भारत की राजनीतिक अवधारणाओं के बारे में लिखते हुए वर्ष 1927 में कलकता विश्वविद्यालय के नारायणचंद्र बंद्योपाध्याय ने पारिभाषिक समानता और उसमें व्यक्त विचारों की कठिनता का उल्लेख किया है। उन्होंने इतिहास में पश्चिमी विचारों को पढ़ने के विरूद्ध चेतावनी भी दी है। 14वीं सदीं के इतिहासकार जिआउद्दीन बर्नी ने दिल्ली सल्तनत के शासकों की कार्यप्रणाली का विश्लेषण किया है और इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि राजसी प्रणाली यहीं से शुरू हुई।
केवल वही शासक, शासक कहला सकता है और राजा माना जा सकता है जिसके राज्य में कोई आदमी नंगा और भूखा न सोता हो और जो ऐसे कानून और उपाय करता है कि किसी विषय पर न तो कोई परेशानी हो और न ही उसका जीवन खतरे में आये। उप राष्ट्रपति ने कहा कि कुछ ऐसे विचार शेरशाह सूरी ने अपनी शासन कला में शामिल किए थे। उप राष्ट्रपति ने यह विचार व्यक्त किया कि अभी हाल में और आजादी से पहले की अवधि में हमारे अधिकांश विचारकों ने पुनर्जागरण लाये जाने की जरूरत बताई है। लेकिन वे टेगौर द्वारा आह्वान की गई 'राष्ट्रवाद की हमारे धर्म की सामाजिक अपर्याप्तता' पर अकसर लड़खड़ा गये है। प्राचीनकाल के बारे में तीन प्रश्न उठाये जाने की आवश्यकता है। क्या तब न्याय की अवधारणा थी? क्या इसकी आंशिक या सार्वभौमिक वैद्यता थी? क्या यह काल्पनिक या व्यावहारिक था?
उपराष्ट्रपति ने कहा कि भीकू पारेख एक महान राजनीतिक चिंतक हैं। इस कारण भारतीय चिंतन के संस्थान की स्थापना की यह पहल समयानुकूल है। आने वाले वर्षों में जिज्ञासु लोग बौद्धिक उद्यम के लिए हमारे संस्थागत ढांचे में व्याप्त अंतर को समाप्त करने के लिए इस संस्थान और सीएसडीसी को धन्यवाद देंगे।
प्राचीन भारत की राजनीतिक अवधारणाओं के बारे में लिखते हुए वर्ष 1927 में कलकता विश्वविद्यालय के नारायणचंद्र बंद्योपाध्याय ने पारिभाषिक समानता और उसमें व्यक्त विचारों की कठिनता का उल्लेख किया है। उन्होंने इतिहास में पश्चिमी विचारों को पढ़ने के विरूद्ध चेतावनी भी दी है। 14वीं सदीं के इतिहासकार जिआउद्दीन बर्नी ने दिल्ली सल्तनत के शासकों की कार्यप्रणाली का विश्लेषण किया है और इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया है कि राजसी प्रणाली यहीं से शुरू हुई।
केवल वही शासक, शासक कहला सकता है और राजा माना जा सकता है जिसके राज्य में कोई आदमी नंगा और भूखा न सोता हो और जो ऐसे कानून और उपाय करता है कि किसी विषय पर न तो कोई परेशानी हो और न ही उसका जीवन खतरे में आये। उप राष्ट्रपति ने कहा कि कुछ ऐसे विचार शेरशाह सूरी ने अपनी शासन कला में शामिल किए थे। उप राष्ट्रपति ने यह विचार व्यक्त किया कि अभी हाल में और आजादी से पहले की अवधि में हमारे अधिकांश विचारकों ने पुनर्जागरण लाये जाने की जरूरत बताई है। लेकिन वे टेगौर द्वारा आह्वान की गई 'राष्ट्रवाद की हमारे धर्म की सामाजिक अपर्याप्तता' पर अकसर लड़खड़ा गये है। प्राचीनकाल के बारे में तीन प्रश्न उठाये जाने की आवश्यकता है। क्या तब न्याय की अवधारणा थी? क्या इसकी आंशिक या सार्वभौमिक वैद्यता थी? क्या यह काल्पनिक या व्यावहारिक था?
उपराष्ट्रपति ने कहा कि भीकू पारेख एक महान राजनीतिक चिंतक हैं। इस कारण भारतीय चिंतन के संस्थान की स्थापना की यह पहल समयानुकूल है। आने वाले वर्षों में जिज्ञासु लोग बौद्धिक उद्यम के लिए हमारे संस्थागत ढांचे में व्याप्त अंतर को समाप्त करने के लिए इस संस्थान और सीएसडीसी को धन्यवाद देंगे।
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