Wednesday, August 28, 2013

बिन मारे बैरी मरै, या सुख कहाँ समाय

बकौल बुंदेलखंड विशेषज्ञ राधाकृष्ण बुंदेली, "यहां तो कन्या को प्रणाम करने की परम्परा है। हम लड़कियों का बड़ा आदर करते हैं " ... इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी, जिसे प्रणाम करते हैं उसे ही नहीं चाहते  !
नसीरुद्दीन हैदर खाँ
जितना सुख खेत में खड़ी ईख के बिकने से होता है, वैसा ही सुख जनमते बेटी के मरने से और अगर शादी से पहले बेटी मर गयी तो क्या कहने? यह अपनी तन से पैदा हुई ‘तनया’ के बारे में बुंदेलखंड के एक हिस्‍से के लोगों की राय है। बेटा है तो जीवन तरेगा … और अगर बेटियाँ हो गईं तो माँ का बुरा हाल। उनका होना कितना दु:ख का सबब है और चले जाना सुख का। इसे बुंदेलों की सरजमीं पर आसानी से देखा/ समझा और महसूस किया जा सकता है। इस होने न होने में लोगों का नजरिया और सामाजिक सच्चाई भी सामने आती है। … ऐसी सोच वाले समाज में भ्रूण का लिंग परीक्षण बढ़ना स्वाभाविक ही है।
बेटवा के हाथ तरै का होत हवै- बेटा जरूरी क्यूँ, कर्वी (चित्रकूट) के कसहाई ग्राम सभा के एक गांव की उर्मिला का बयान है, ‘बेटियाँ हैं। लोग ताना देते हैं, मरेगी तो तरेगी नहीं। वंश नाश हो जायेगा।’ राजुल इसमें जोड़ती है, ‘बेटवा के हाथ से जीवन तर जात हवै, नीक हो या निकाम आखिर वंश तो चलावत है!’ बांदा के तिंदवारी की पुष्पा का भी मानना है, ‘बेटवा के हाथ तरै का होत हवै।’
पुत्र न हो इससे बड़ा सोग नहीं- ‘समाज में मान्यता नहीं मिलती। कहते हैं औलाद नहीं हैं’- यह जनाब दो बेटियों के बाप खेती करने वाले रामसुमेर हैं। (मानो जैसे बेटी औलाद नहीं होती।) राधे लाल तो यहाँ तक बोल डालते हैं, ‘पुत्र न हो इससे बड़ा सोग नहीं। ऋण से बड़ा रोग नहीं।’
अगर बेटी हो गई तो… तो फिर माँ की जिंदगी ताने सुनते हुए बीतनी है। सेमरा (बांदा) की एक औरत कहती है, दिल से कभी नहीं निकलता की बेटी हो। बेटी हो गई तो माँ को पेट भर खाना नहीं मिलता।
कहीं फिर बेटी हो गई तो- बांदा की शहनाज का दर्द कुछ और है, ‘बच्ची को ठीक से दूध भी नहीं पिलाने देते। कहते हैं, रोने दो।’ सुनीता कुछ और जोड़ती है, ‘लड़की पैदा हुई तो घर में ऐसा माहौल हो जाता है जैसे कोई मर गया है। सब सोचते हैं लड़की मर जाए तो अच्छा है।’ बेटी होने का खौफ कोई आबादी के रामप्रीत से पूछे उसके तीन बेटियाँ है। गर्भवती है। डर रही है कहीं फिर बेटी हो गयी तो?
महतारिन की कोख में जाई- उन औरतों का हाल और बुरा होता है जिनके बहनें ज्यादा होती हैं। कर्वी की रेनू की चार बहनें हैं। … जब वह गर्भवती हुई तो ससुराल वाले यही कहा करते थे, ‘इसकी माँ का वंश बेटियों वाला है तो इसका भी यही होगा। महतारिन की कोख में जाई।’ ऊषा को भी ताने मिलते हैं, ‘जउन तना महतारी निखरी रही हवै वहिनतना बिटियव होइंग हवै!’ और जब फूलमती को अपनी माँ की तरह बेटी ही हुई तो उसे सुनना पड़ा, ‘महतारी के कोख मा चली गे, यहूके बिटियै-बिटियै होइहै!’
… या सुख कहाँ समाय- बेटियों के बारे में वाकई समाज इतना क्रूर है या फिर कोई करुण कथा- तय कर पाना कठिन है। बेटियों का न होने का उत्सव, यह सोचना भी सभ्य समाज में डरावना लगता है। पर इलाके में प्रचलित कहावतों का क्या करेंगे। उर्मिला के मुताबिक लोग बड़े उत्साह से कहते हैं, ‘बिन ब्याही बिटिया मरै, या सुख कहाँ समाय।’ तो एक संगठन में काम करने वाले जितेन्‍द्र इससे भी भयावह दो लाइन सुनाते हैं, ‘जनमत बिटिया जो मरै, ठाड़ी ऊख बिकाय। बिन मारे बैरी मरै, या सुख कहाँ समाय॥’
-जाने माने लेखक/वरिष्ठ पत्रकार  "नसीरुद्दीन हैदर खाँ" की वेबसाइट "जेंडर जिहाद" से साभार |

No comments:

Post a Comment