"मद्रास कैफे की कहानी भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में 80 के दशक के मध्य में शुरू हुए गृह युद्ध और उसमें भारत की भूमिका पर केंद्रित है। करीब 27 सालों तक चले इस नरसंहार में हजारों निर्दोष तमिल मारे गए। इस दौरान भारतीय सेना के 1200 से अधिक जवानों को भी पड़ोसी देश में अपनी जान गंवानी पड़ी थी "
- संदीप पाण्डेय


- संदीप पाण्डेय

वर्चस्व की जंग में आखिर क्यों हर बार निर्दोषों की ही जान जाती है। चाहे वह मिस्र हो, सीरिया हो, पाकिस्तान या अफगानिस्तान हो या फिर श्रीलंका या खुद भारत ही। कोई भी मुद्दा हो, कोई भी आंदोलन छिड़े, आखिर में मारा आम आदमी ही जाता है।’ कुछ ऐसे ही संदेश को लेकर इस शुक्रवार को रिलीज हुई है सुजीत सरकार की फिल्म ‘मद्रास कैफे’। फिल्म के पहले सीन से ही आपको अंदाजा हो जाएगा कि ये फिल्म भारतीय इतिहास के एक खास अध्याय पर आधारित है।
मद्रास कैफे की कहानी भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में 80 के दशक के मध्य में शुरू हुए गृह युद्ध और उसमें भारत की भूमिका पर केंद्रित है। करीब 27 सालों तक चले इस नरसंहार में हजारों निर्दोष तमिल मारे गए। इस दौरान भारतीय सेना के 1200 से अधिक जवानों को भी पड़ोसी देश में अपनी जान गंवानी पड़ी। फिल्म में जॉन अब्राहम (विक्रम सिंह) ने एक सैन्य अधिकारी का रोल किया है, जिन्हें भारतीय खुफिया एजेंसी ‘रॉ’ द्वारा श्रीलंका में तमिल विद्रोही संगठन ‘एलटीएफ’ के गढ़ माने जाने वाले जाफना में एक गुप्त आपरेशन के लिए भेजा जाता है। विक्रम सिंह को जाफना इस वादे के साथ भेजा जाता है कि उन्हें भारत सरकार की ओर से इस संबंध में हर तरह की मदद दी जाएगी, लेकिन सच्चाई कुछ और होती है। जाफना में विक्रम सिंह की जंग सिर्फ एलटीएफ चीफ भास्करन से ही नहीं बल्कि ऐसे अपनों से भी थी, जो दुश्मन से मिले होते हैं। ऐसे में विक्रम सिंह की मदद एक विदेशी पत्रकार जया साहनी (नरगिस फाखरी) करती है। जया और खुफिया एजेंसियों से मिली कुछ जानकारियों के जरिए विक्रम एलटीएफ और कुछ विदेशी ताकतों द्वारा पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश का खुलासा करता है। हालांकि लाख कोशिशों के बाद भी वह इस साजिश को विफल करने में नाकाम रहता है।
‘मद्रास कैफे’ पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या से प्रभावित दिखती है। ऐसा माना जाता है कि 80

के दशक में श्रीलंका में तमिल लोगों पर अत्याचार के खिलाफ भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ ने प्रभाकरन(फिल्म में भास्करन) के नेतृत्व में श्रीलंकाई तमिलों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण दिया था ताकि वे अपनी रक्षा कर सकें। लेकिन दशक के अंत में जब यह गृह युद्ध अपने चरम पर पहुंच गया तो तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने श्रीलंका की ओर से मदद मांगे जाने पर वहां शांति सेना भेजने का फैसला किया। यह फैसला एलटीटीई (फिल्म में एलटीएफ) चीफ प्रभाकरन के विरोध के बाद भी लिया गया। तमिल विद्रोहियों के संगठन एलटीटीई के नेटवर्क को भारतीय शांति सेना ने तहस नहस कर दिया, जिससे बौखलाए प्रभाकरन ने विदेशी शक्तियों से हाथ मिलाया और पूर्व भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की साजिश रची। षड्यंत्र रचने और विदेशी शक्तियों से संपर्क साधने में प्रभाकरन के करीबी सेलवरासा पद्मनाथन उर्फ केपी (फिल्म में राजशेखरन) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरम्बदूर में इस हत्याकांड को अंजाम दे दिया गया।
कश्मीर की राजनीति पर ‘यहां’ और ‘विकी डोनर’ जैसी सफल कॉमेडी फिल्म बना चुके सुजीत सरकार के लिए इतने संवेदनशील मुद्दे पर फिल्म बनाना बड़ी चुनौती था। लेकिन उन्होंने इस काम को बखूबी अंजाम देकर नई पीढ़ी के निर्देशकों के लिए नए रास्ते खोलने की कोशिश की है। गाने बजाने और हास्य के बिना भी फिल्म की गति कहीं भी टूटती नहीं दिखती। पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या की कड़ियों को बिना किसी ड्रामे के सिलसिलेवार तरीके से जोड़ा गया है। फिल्म का झुकाव किसी एक पक्ष की ओर नहीं लगता। फिल्म का कोई भी सीन बोझिल नहीं है। कुछ सीन तो बिलकुल हॉलीवुड फिल्मों की तरह हैं। फिल्म के संवाद जूही चतुर्वेदी ने लिखे हैं जो इस फिल्म की शैली के मुताबिक आम आदमी की भाषा में ही हैं।
अगर अभिनय की बात करें तो ‘मद्रास कैफे’ में बड़े नामों की जगह कम दिखने वाले चेहरों को वरीयता दी गई है। विशेष रूप से रॉ-चीफ के रूप में सिद्धार्थ बसु ने खासा प्रभावित किया है। रॉ एजेंट के छोटे रोल में पत्रकार दिबांग ने भी शानदार अभिनय किया है। नरगिस फाखरी भी विदेशी पत्रकार की भूमिका में ठीक ठाक दिखी हैं। ‘मद्रास कैफे’ के नायक जॉन अब्राहम ने विक्रम के किरदार के साथ पूरा न्याय किया है, उन्होंने अपनी परंपरागत मारधाड़ वाली छवि से बाहर निकलते हुए एक समझदार सैन्य अधिकारी के रूप में अच्छा अभिनय किया है। ‘मद्रास कैफे’ जैसी फिल्म में पैसा लगाने के लिए भी जॉन अब्राहम की तारीफ करनी होगी। विवादों और बॉक्स आॅफिस की परवाह न करते हुए उन्होंने यह फिल्म बनाई। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग भारत में ही हुई है। श्रीलंका के जाफना इलाके को भारत में ही रीक्रिएट किया गया है। हालांकि फिल्म देखते समय ऐसा बिलकुल नहीं लगता। ‘मद्रास कैफे’ भविष्य के हिन्दी सिनेमा की दिशा में एक उम्मीद की तरह दिखती है। फिल्म कापहले दिन का बॉक्स आफिस कलेक्शन कुल 4.5 करोड़ रुपये बताया जा रहा है। सौ करोड़ कमाने की आपाधापी में जुटी फिल्मों की रेस में भले ही यह कम लगता हो, लेकिन जिस संदेश को लेकर यह फिल्म बनाई गई है, वो जरूर अपने अंजाम तक पहुंचता दिख रहा है।
- लेखक "संदीप पाण्डेय " आगरा में पत्रकारिता के पेशे से जुड़े हुए है |
No comments:
Post a Comment