"सियासी दल केवल राजनीतिक सुरक्षा के लिए सदन से सड़क तक हंगामा करते हैं ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। आम आदमी अब इवीएम मशीन के आंकड़ों में फिट बैठ जाए इसी की कोशिश में सभी सियासी दल लगे हैं। भूख मिटाने और आर्थिक हालात को सुधारने के मुद्दों को लेकर तो अब अर्थशास्त्र की परिभाषा भी सवालों के कटघरे में है"
- अखिलेश कृष्ण मोहन

केंद्र की राजनीति हो या प्रदेश की हर जगह राजनीतिक सुरक्षा ही अहम है। सियासी दल इलेक्टोरल सिक्योरिटी को ही अहमियत दे रहे हैं। उनकी हर योजनाओं में मतदाता चिन्हित किया जा रहा है। सत्ता में आने के लिए गुणा भाग सही हो बस बाकी समाज और आर्थिक हालात पर चिंता करने की जरूरत नहीं है।
सत्ता में बैठे लोग आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा पैदा नहीं कर पाएंगे तो देश प्रदेश में निराशा और हताशा बढ़ेगी ही। यूपीए सरकार का लगातार दूसरा कार्यकाल पूरा होने जा रहा है। दोनों कार्यकाल के प्रधानमंत्री भी मनमोहन सिंह ही हैं। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि प्रधानमंत्री बदल जाने से अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करने वाली और बड़ी योजनाओं को लागू नहीं किया जा सका जिसकी वजह से हालात बदतर हुए हैं। रुपया यूपीए सरकार के बीते 10 सालों में हमेशा कमजोर हुआ है। सरकार भले ही संसद में मजबूती के साथ अपना पक्ष रखने में सफल हो लेकिन 10 सालों में रुपए की गिरती कीमत और अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री का कुछ भी न कर पाना कई सवाल खड़े करता है। सूचनाएं आती रहती हैं कि कांग्रेस के पास जमीनी नेताओं, अर्थशास्त्र के जानकार और न जाने किस किस विधा में पारंगत लोगों की एक बड़ी फौज है। लेकिन इन सूचनाओं ने वास्तव में मन को झकझोरने के अलावा कुछ किया नहीं। महंगाई से आम आदमी क्या खास आदमी भी परेशान है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरे पांच साल आश्वासन देते रहे कि महंगाई अगले साल या आने वाले 6 महीनों में कम होगी लेकिन न तो वो अगला साल आया और न ही वो 6 महीने जो लोगों को सुकून दे सकें। पेट्रोल, रसोई गैस, डीजल के दाम ऐसे बढ़े जैसे देश युद्ध जैसी किसी आपात स्थिति से जूझ रहा हो देश और सरकार को मजबूरी में कदम उठाने पड़े हों। पहली बार ऐसा हुआ कि पेट्रोल के दाम एक दो रुपए नहीं बल्कि पांच रुपए प्रति लीटर तक एक साथ बढ़ा दिए गए। महंगाई को दूर करने का आश्वासन तो कोरा आश्वासन ही रहा ऊपर से एलपीजी को लेकर भी सब्सिडी का एक कोटा तय कर दिया गया।
खाने-पीने को लेकर भी एक दायरा तय करने की कोशिश की जा रही है। योजना आयोग की रिपोर्ट कहती है कि शहर में 33 रुपए और देहात में 27 रुपए कमाने वाला गरीब नहीं है यानी वह
सेहतमंद रहने के लिए जरूरी खानपान इतने रुपए में कर सकता है कांग्रेस के कई नेता और मंत्री
तो ऐसे बयान देते हैं जो गरीबों के जख्म पर नमक से कम नहीं। सांसद राजबब्बर कहते हैं कि देश में 12 रुपए में भी भर पेट खाना मिल सकता है। योजना आयोग अपने आंकड़ों के जरिये देश में गरीबी कम कर के दिखा रही है। नए आंकड़ों के मुताबिक देश की आबादी में गरीबों का अनुपात 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत पर आ गया। यह 2004-05 में 37.2 प्रतिशत पर था। योजना आयोग ने एक प्रकार से अपने पूर्व के विवादास्पद गरीबी गणना के तरीके के आधार पर ही यह आंकड़ा निकाला है। योजना आयोग के अनुसार, तेंदुलकर प्रणाली के तहत 2011-12 में ग्रामीण इलाकों में 816 रुपये रपये प्रति व्यक्ति प्रति माह से कम उपभोग करने वाला व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे था। शहरों में राष्ट्रीय गरीबी की रेखा का पैमाना 1,000 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह का उपभोग है। सरकार फेल है लेकिन पास होने का दावा कर जनता को खाद्य सुरक्षा बिल का भरोसा दे रही है। दूसरी तरफ यूपीए के खिलाफ चार्जशीट तैयार करने में जुटी भाजपा भी मानने लगी है कि महंगाई के मुद्दे पर ही जनता को एक जुट नहीं किया जा सकता । कांग्रेस की कई मुद्दों पर हकीकत बताने के साथ ही समाधान भी बताना होगा। 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के लाल किले की प्रचीर से संबोधन को जवाब देते हुए मोदी ने भुज के लालन कॉलेज में ने केवल तिरंगा फहराया बल्कि इस दौरान अपने भाषण में मोदी ने गुजरात की उपलब्धियों का जिक्र करने के साथ ही पीएम मनमोहन सिंह के लाल किले से दिए गए संबोधन पर जमकर हमला बोला। मोदी ने मनमोहन को आर्थिक नीतियों से लेकर विदेश नीति तक घेरा। नई परिपाटी शुरू कर ये दिखा दिया कि पीएम को हर मोर्चे पर भाजपा शिकस्त देगी।
ऐसा नहीं है कि देश के कार्पोरेट घराने और कारोबारी सरकार की इस कार्यशैली से बहुत संतुष्ट हों । इकॉनोमी की हालत सुधारने में यूपीए सरकार की नाकामी को लेकर कारोबारी भी अपना संयम खो रहे हैं। बीते महीने की 29 जुलाई को दिल्ली में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ट्रेड और इंडस्ट्री काउंसिल में शामिल 20 कॉर्पोरेट लीडर्स में से 5 लोगों ने मीटिंग में हिस्सा ही नहीं लिया। यह मीटिंग ग्रोथ बढ़ाने, करंट अकाउंट डेफिसिट और रुपए में गिरावट जैसे मुद्दों पर चर्चा करने के लिए बुलाई गई थी। मीटिंग में शामिल हुए कई इंडस्ट्री के दिग्गजों ने सरकार की पॉलिसी और इसे लागू करने में कमजोरी को लेकर सवाल उठाए हैं जिसको लेकर प्रधानमंत्री के माथे पर बल पड़ना स्वाभाविक है।
केंद्र की राजनीति हो या प्रदेश की हर जगह राजनीतिक सुरक्षा ही अहम है। सियासी दल इलेक्टोरल सिक्योरिटी को ही अहमियत दे रहे हैं। उनकी हर योजनाओं में मतदाता चिन्हित किया जा रहा है। सत्ता में आने के लिए गुणा भाग सही हो बस बाकी समाज और आर्थिक हालात पर चिंता करने की जरूरत नहीं है। सियासी दल केवल राजनीतिक सुरक्षा के लिए सदन से सड़क तक हंगामा करते हैं ऐसा कहा जाए तो गलत नहीं होगा। आम आदमी अब इवीएम मशीन के आंकड़ों में फिट बैठ जाए इसी की कोशिश में सभी सियासी दल लगे हैं। भूख मिटाने और आर्थिक हालात को सुधारने के मुद्दों को लेकर तो अब अर्थशास्त्र की परिभाषा भी सवालों के कटघरे में है।
- लेखक/ पत्रकार "अखिलेश कृष्ण मोहन" लखनऊ में डीडीसी न्यूज़ नेटवर्क से जुड़े हुए है |

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