Wednesday, March 16, 2011

कब तक बुराइयों से लड़ने वाले मौत के मुह में जाते रहेंगे?

Writer-Imran Zaheer
कब तक बुराइयों से लड़ने वाले मौत के मुह में जाते रहेंगे? कितने दुःख की बात है की आज समाज को आइना दिखने वाले समाज के सजग प्रहरी और कलम के सिपाहियों को मौत के घात उतार दिया जा रहा है या फिर उनपर जानलेवा हमला किया जा रहा है | समाज में कलम के सिपाही लोगो को सही रास्ता दिखाने का काम करते है और समाज में फैली बुराइयों को आमजन तक पंहुचा कर अच्छे बुरे की पहचान कराते है, लेकिन आज उनकी मौत की खबर हो या उनपर जानलेवा हमला हो रहा हो ऐसी खबरे आये दिन अखबारों/मीडिया में सुर्खियाँ बनती नज़र आती है| 
पिछले दिनों काफी चर्चा में रहे एक नक्सली नेता के साथ  एक पत्रकार को भी  गोली का निशाना बना  कर पुलिस ने अपनी कायरता  का परिचय दिया था| इस तरह कलम के सिपाही को मौत के घात उतारने वालो की हरकत और मंशा सिर्फ एक नज़र आती है की इन कथित पुलिस वालो ने कही न कही से अपनी दुश्मनी एक पत्रकार से भी निकाली है जो इन भ्रस्टाचार के दलदल में डुबकियाँ लगा रहे बेलगाम पुलिस वालो के गलत कारनामों को उजागर कर समाज  के सामने ला कर खड़ा करता है| अभी हाल ही में गाजीपुर जिले में दैनिक आज के फोटोग्राफर गुलाब राय पर फोटो खीचे जाने की वजह से हमला बोल दिया गया| आइये  मीडिया में प्रकाशित कुछ हेडिंग पर नज़र डालते है " फोटोग्राफर पर हमला : आरोपियों की गिरफ्तारी में निष्क्रियता दिखा रही पुलिस ,  प्रेस क्‍लब अध्‍यक्ष के साथ मारपीट, तीन हिरासत में,  एटा में बेलगाम पुलिस ने की दो फोटोग्राफरों की पिटाई,  बीबीसी के तीन पत्रकारों को बंधक बनाकर पीटा गया ,  रिपोर्टर नरेश कुमार सहगल पर हमले के मामले में कोई कार्यवाही नहीं!,  हजारीबाग में तीन मीडियाकर्मियों से मारपीट, कैमरे छीने गए,  बसपा विधायक के गुर्गों ने चार पत्रकारों को पेड़ से बांधकर पीटा,  चैनल के एडिटर को बिल्‍डर ने दी जान से मारने की धमकी,  सीबीआई करेगी पत्रकार सुशील पाठक हत्‍याकांड की जांच,  (ये सभी रिपोर्ट bhad4media में प्रकाशित) ऐसी ही सैकड़ो दुखद खबरे ना जाने कितने अखबारों और चैनलों में आये दिन सुर्खियाँ बनती नज़र आती है| क्या ऐसे में बुराइयों से लड़ने वाले इन कलम के सिपाहियों को कलम चलाना छोड़ देना चाहिए? आज इस समाज में कलम के सिपाहियों की हत्या की जा रही है क्यों? क्या सिर्फ इस कारण कि वह समाज में फैली बुराईयों  को जड़ से ख़त्म  करने की कोशिश करता है इसलिए? लोगो को उनके अधिकार से परिचय  कराता है इसलिए? और समाज में फैली बुराइयों  को मिटाने और भ्रस्टाचार को उखाड़ फेंकने वाला ही इन पुलिस वालो की गोली का निशाना बन जाता है!  या फिर किसी और के द्वारा ऐसे पत्रकारों को गोली मार दी जाती है, जो समाज से बुराई को जड़ से ख़त्म  करने के लिए अपनी ज़िन्दगी  कि परवाह किये बगैर जी तोड़ कोशिश करता है| 
ऐसा कब तक चलता रहेगा  कब तक बुराइयों से लड़ने वाले मौत के मुह में जाते रहेंगे?  आज इस भ्रष्ट समाज में कोई भी पत्रकार सुरक्षित क्यों नहीं है? उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने वाले लोग ही  उनकी हत्या क्यों कर रहे है? समाज के इस सजग प्रहरी की सुरक्षा के प्रति सरकार संवेदनशील क्यों नहीं हो रही  है? ऐसे तमाम सवाल हर पत्रकार के दिमाग में गूँज रहे है जो इस समाज में फैली तमाम बुराइयों को जड़ से ख़त्म  करने और भ्रष्ट लोगो को बेनकाब करने के लिये जोखिम उठाने के साथ साथ समाज को एक सही दिशा में ले जाने का प्रयास करते है| लेकिन पत्रकारों के मारे जाने में पत्रकार समाज भी कम दोषी नहीं है वह इसलिए कि पत्रकार ही अपने साथी के मारे जाने के बाद एक दो ज्ञापन धरना प्रदर्शन करने के बाद खामोश हो जाता है अब हमें जागने और अपने सोये हुये साथियों को जगाने कि ज़रुरत है हमें ज़रुरत है अपनी ताक़त को पहचानने कि हमें अब अपनी खामोशी को तोड़ने और ज़ुल्म और ज्यादती के खिलाफ लड़ना पड़ेगा तभी हम सुरक्षित रह पायेंगे और अगर हम इसी तरह खामोश तमाशबीन बने रहे तो इसी तरह से मारे जाते रहेंगे और अपने साथी  की  मौत पर दो मिनट  का मौन रख कर स्रंधांजलि देने के साथ साथ खुद की दुखद खबरों से अखबारों में सुर्खिया बनते रहेंगे!

Monday, March 7, 2011

यहाँ मौत बिकती है, बोलो खरीदोगो ?

यहाँ मौत बिकती है, बोलो खरीदोगो ? आइये नजर डालते है समाज में बिक रही उन नशीली मौतों की जो खुले आम बेचीं जा रही है ऐसी मौत जो ना किसी बन्दूक की गोली से ना किसी हादसे से होती है बल्कि ऐसी मौत जो खरीदी जाती है, जिसे बेचती है सरकार वो भी डंके की चोट पर| सरकार द्वारा जनहित में जारी विज्ञापन से इसके दुष्परिणाम को बता कर लोगो को मौत के मुह में जाने से नहीं रोका जा सकता , ये प्रयास तब तक  सफल नहीं हो सकता जब तक ऐसे नशीले पदार्थो पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध नहीं लगा दिया जाता |
हमारी सरकार के भी क्या कहने हाल ही में गुटखो तम्बाकू की बिक्री पर रोक लगाने के बजाये प्लास्टिक पाउच में बेचने पर प्रतिबन्ध लगा दिया| ऐसे में सरकार क्या साबित करना चाहती है ये सरकार ही जाने| चलिए बात करते है उन मौतों की जो तम्बाकू के सेवन से होती है, सरकार द्वारा इसके दुष-परिणामो की जानकारी एक विज्ञापन के द्वारा लोगो तक पहुचाई जा रही है, और इसका  सेवन ना करने की सलाह लगातार दी जा रही वहीँ दूसरी तरफ इसे खुले आम बेचा भी जा रहा| सोचनिये है की जिस पदार्थ/सामग्री से लोगो को कैंसर की बिमारी होने की जानकारी दी जा रही है वहीँ दूसरी तरफ  ऐसे पदार्थ/सामग्री को खुले आम बेचने की अनुमति क्यों है? होना तो ये चाहिए था की अगर ऐसी सामग्री से लोगो की जान जाती है तो उस पर  पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए ना की टीवी और अखबारों में विज्ञापन देना चाहिए की इसका सेवन ना करे|  और तो और सरकार ने  तम्बाकू और सिगरेट की पैकेट पर बिच्छु जैसी आकृति के साथ ये शब्द " तम्बाकू जानलेवा है, तम्बाकू से कैंसर हो सकता है " को प्रदर्शित करना अनिवार्य कर दिया  सरकार को लगता है की ऐसी आकृति और जानलेवा शब्द के प्रदर्शित करने से लोग इसका सेवन नहीं करेंगे| वही सुप्रीम कोर्ट ने अब प्लास्टिक के  पाउच में  गुटको/तम्बाकू की बिक्री पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध भी लगा दिया है | लेकिन एक बात सोचने पर मजबूर करती है कि सरकार द्वारा इस तरह मौत बेचने की अनुमति देने की कमज़ोरी क्या है? 
आज ना जाने कितने लोग तम्बाकू के सेवन से ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहे है लेकिन हमारी सरकार सिर्फ विज्ञापन से लोगो को इसका प्रयोग ना करने की सलाह देने में आगे है| सबसे अधिक इसके सेवन से गरीब मरते है| हमारे शराब माफियाओं की मेहरबानी के क्या कहने  एक तो  शराब  पहले से ही जानलेवा है उसके बाद उसमे भी मिलावट  कर उसे और ज़हरीला बना दिया जा रहा जिससे आये दिन ना जाने कितने लोगो की मौत हो रही है |
विभिन्य टेलीविजन चैनल पर रोज़ आने वाले विज्ञापन पर नज़र डाले तो कोई भी उस विज्ञापन को देख कर कह सकता है की सच में तम्बाकू का सेवन कितना खतरनाक है| हालाँकि घरो में इस विज्ञापन का असर भी देखने को मिला है जिसके बाद कुछ लोगो ने इस मुसीबत से छुटकारा पा लिया वही कुछ इसका सेवन नियमित रूप से कर रहे है कुछ का कहना है की अगर ऐसे पदार्थ मार्केट में ना बेचे जाये तो संभव है की इस तम्बाकू से छुटकारा मिल सकेगा, लेकिन मार्केट में हर दस कदम की दूरी पर बिकने वाले तम्बाकू को देख कर ही अमल लगने लगता है और ना चाहते हुए भी इसका सेवन करना पड़ता है | देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने एक मार्च से गुटखे के प्लास्टिक पाउच में उत्पादन तथा बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है लेकिन इसके बावजूद अब तक इसकी बिक्री पर कोई रोक नहीं लगाईं जा सकी है| कुछ फुटकर दुकानदारों कि माने तो उनके पास प्लास्टिक पाउच में मौजूद  गुटखो/तम्बाकू का काफी स्टॉक है| कुछ दुकानदारों का कहना है कि वितरण करने वाले को इसे वापस करने के लिये कहा गया तो उन्होंने असहमति जाता दी और वापस लेने से मान कर दिया जिसकी वजह से छोटे और फुटकर दुकानदार इसे बेचने में अपनी मजबूरी समझते है| वहीँ प्रशासन कि तरफ से अभी तक किसी भी दबाव के ना आने पर इसकी बिक्री पर कोई असर नहीं पड़ा है और खुले आम इसे बेचा जा रहा है |
बहरहाल देखना ये है की सरकार ऐसे ज़हरीले पदार्थो पर प्रतिबन्ध कब लगाती है? और इनसे हो रही मौतों को रोकती है | सरकार द्वारा जनहित में जारी विज्ञापन से इसके दुष्परिणाम को बता कर लोगो को मौत के मुह में जाने से नहीं रोका जा सकता , ये प्रयास तब तक  सफल नहीं हो सकता जब तक ऐसे नशीले पदार्थो पर पूर्ण रूप से प्रतिबन्ध नहीं लगा दिया जाता |

हम पर तरस खाओ...हम बच्चे है जानवर नहीं...!

मुरादाबाद , उत्तर प्रदेश: हम बच्चे है जानवर नहीं... शायद ये कथन इन बच्चो के मुह पर ज़रूर होगा इस तस्वीर से भली प्रकार से अंदाज़ा लगाया जा सकता है की आज स्कूल प्रबंधतंत्र को मासूम बच्चो की पीड़ा से नहीं वरन मोटी फीस से प्यार है|  बच्चो को जानवरों की तरह वाहनों में  इस तरह से ठूस ठूस कर भर कर ले जाना बेहद ही चिंता का विषय है| 
ऐसा ही नज़ारा रोज़ सुबह और स्कूल की छुट्टी के समय देखने को मिल जायेगा| ऐसा नहीं है की इस नज़ारे से स्कूल प्रबंधतंत्र वाकिफ नहीं है| प्रतिदिन बच्चो को जानवरों की तरह भर कर स्कूल तक छोड़ने वाले वाहन स्कूल के अन्दर तक अपने वाहनों को ले जाते है ऐसे में इस स्कूल के द्वारा आंखे मूंदे रहना एक सवालिया निशान खड़ा करता है की आखिर इस पर कोई कारवाही क्यों नहीं की जा रही| दूसरी तरफ महगाई और बढ़ते पेट्रोल के दाम से आज स्कूल जाने वाले बच्चे भी सुरक्षित  नहीं है, मुरादाबाद में बच्चो को स्कूल तक पहुचाने वाले अधिकतर  वाहन पेट्रोल की जगह घरेलु गैस  सिलेंडर का उपयोग कर रहे है जो बच्चो की सुरक्षा  की दृष्टि से बेहद खतरनाक है| आज अभिभावक भी इसके लिये कम ज़िम्मेदार नहीं है जो कम पैसो में अपने बच्चो को स्कूल ले जाने वाले वाहन को तय करने में अधिक तरजीह देते है | अधिकतर देखा गया है और समाचार पत्रों में सुर्खियाँ भी बनती हुई खबर प्रकाशित होती है की स्कूल वैन में आग लगी, तह तक जाने में पता चला की उस वाहन में घरेलु  गैस लगी होने की वजह से ऐसा दर्दनाक हादसा हुआ | उसके बाद भी  छोटे-छोटे बच्चो की ज़िन्दगी से खिलवाड़ करने वाले वाहन स्वामी को इस बात से ज़रा भी फर्क नहीं पड़ता की पैसो की कमाई करने की होड़ में वो नौनिहालों की ज़िन्दगी से खेल रहे है साथ ही आज स्कूल के वाहनों में बच्चो की संख्या उस वाहन की क्षमता से काफी अधिक होती है ऐसे में स्कूल  का प्रबंध तंत्र भी आंखे मूंदे रहता है जैसे उसे कुछ पता ही नहीं| ताज्जुब वाली बात है की सडको पर ठूस ठूस कर वाहनों से स्कूल तक ले जाये जा रहे बच्चो पर पुलिस की दृष्टि भी नहीं पड़ती|